पागलपन और जिद को जब हौसले का साथ मिलता है तब असंभव भी संभव हो जाता है। इतिहास के पन्नों में हजारों ऐसी कहानियां है जो इस बात को साबित करती हैं। लेकिन सिर्फ इतिहास ही मानवीय उपलब्धियों का गवाह नहीं है। वर्तमान में बिहार के गया जिले के एक दीवाने ने पहाड़ के सीने पर इंसानी कामयाबी की नई इबारत लिख दी है।
बिहार के ही गया जिले के दशरथ मांझी की कहानी को दुनिया जानती है। उन्होंने पहाड़ के सीने पर सड़क काटकर गांव के लोगों का जीवन सरल और सुगम कर दिया था। दशरथ मांझी अस्पताल न पहुंच पाने के कारण हुई अपनी पत्नी की मौत से टूट गए थे। पत्नी की मौत से दुखी दशरथ मांझी ने 1960 में पहाड़ काटना शुरू किया था और 22 साल की मेहनत के बाद वह पहाड़ में 110 मीटर लंबा रास्ता बनाने में कामयाब रहे थे।
बिहार के ही गया जिले के दशरथ मांझी की कहानी को दुनिया जानती है। उन्होंने पहाड़ के सीने पर सड़क काटकर गांव के लोगों का जीवन सरल और सुगम कर दिया था। दशरथ मांझी अस्पताल न पहुंच पाने के कारण हुई अपनी पत्नी की मौत से टूट गए थे। पत्नी की मौत से दुखी दशरथ मांझी ने 1960 में पहाड़ काटना शुरू किया था और 22 साल की मेहनत के बाद वह पहाड़ में 110 मीटर लंबा रास्ता बनाने में कामयाब रहे थे।
अब गया के ही रामचंद्र दास ने यह कहानी दोहराई है। उन्होंने 18 साल की मेहनत के बाद अपने गांव को सड़क देकर शहर और गांव के बीच का रास्ता कम किया है। रामचंद्र दास की बनाई सड़क के कारण दस गांवों की शहर तक पहुंच आसान हुई है।
दशरथ मांझी से ही प्रेरित होकर रामचंद्र दास ने 1993 में सड़क काटनी शुरू की थी। शुरूआत में लोगों ने उन्हें पागल समझा लेकिन बाद में उनका यही पागलपन उनके और आसपास के गांवों के लिए वरदान बन गया। उनकी मेहनत के कारण आज गया और उनके गांव के बीच फासला 25 किलोमीटर कम हो गया है।
लेकिन सड़क बनाने में दास का सिर्फ वक्त और मेहनत ही नहीं लगी बल्कि परिवार भी पीछे छूट गया। वह पूरे दिन सड़क तोड़ने में लगे रहते जिसकी वजह से परिवार चलाने की जिम्मेदारी उनकी पत्नी पर आ गई। लेकिन आज उनकी पत्नी भी इस कारनामे से खुश हैं।
अच्छी बात यह रही कि शुरू में जो गांववाले दास पर हंसते थे बाद में वह उनके साथ आ गए। रामचंद्र दास कहते हैं कि जब तक देश के हर गांव तक सड़क नहीं पहुंचेगी उनका मिशन कामयाब नहीं होगा।
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